Tatvadarshi Sant Ki Pehchaan: कई स्वयंभू धर्मगुरु, शंकराचार्य, कथावाचक, और महामंडलेश्वर जो खुद को गीता के विद्वान और हिंदू धर्म का ठेकेदार बताते हैं, गीता का पाठ तो करते हैं, किंतु जब उनसे तत्वदर्शी संत की पहचान पूछी जाती है, तो वे गीता के गूढ़ ज्ञान को स्पष्ट करने में असमर्थ रहते हैं। उनके जवाब अक्सर भ्रामक और अपूर्ण होते हैं, जिनमें गीता के तत्वज्ञान का कोई आधार नहीं मिलता।
वहीं, संत रामपाल जी महाराज ने पवित्र गीता के आधार पर तत्वदर्शी संत की पहचान को स्पष्ट और सरल ढंग से समझाया है। आइए, इस लेख के माध्यम से हम गीता के आधार पर Tatvadarshi Sant Ki Pehchaan और तत्वज्ञान की महत्ता को जानें।
तत्वज्ञान के लिए तत्वदर्शी संत क्यों आवश्यक?
पवित्र गीता के अध्याय 4, श्लोक 34 में कहा गया है:
तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
भावार्थ: पूर्ण परमात्मा के वास्तविक तत्वज्ञान को प्राप्त करने के लिए तत्वदर्शी संत की शरण में जाना आवश्यक है। नम्रतापूर्वक उनकी सेवा करने, कपट रहित प्रश्न पूछने और उनके प्रति समर्पण भाव रखने से ही वे तत्वदर्शी संत उस परम ज्ञान का उपदेश देते हैं, जो पूर्ण ब्रह्म को समझने में सहायक होता है।
Tatvadarshi Sant Ki Pehchaan: गीता के आधार पर
गीता के अध्याय 15, श्लोक 1, 16 और 17 में तत्वदर्शी संत की स्पष्ट पहचान दी गई है।
पहली पहचान: गीता अध्याय 15, श्लोक 1 में बताया गया है:
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।
भावार्थ: संसार को एक उल्टे पीपल के वृक्ष के रूप में वर्णित किया गया है, जिसकी जड़ें ऊपर (पूर्ण परमात्मा) और शाखाएँ नीचे (तीनों गुण: रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) हैं। इस संसार रूपी वृक्ष के सभी भागों जैसे तना, शाखाएँ, पत्ते आदि को पूर्ण रूप से जानने वाला ही वेदों का सच्चा ज्ञाता और तत्वदर्शी संत है।
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Tatvadarshi Sant Ki Pehchaan: इसी अध्याय के श्लोक 16 में कहा गया है कि इस लोक में दो पुरुष हैं: क्षर पुरुष (ब्रह्म) और अक्षर पुरुष (परब्रह्म), जो दोनों ही नाशवान हैं, किंतु आत्मा अमर है। फिर, श्लोक 17 में स्पष्ट किया गया है:
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेति उदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्ति अव्यय ईश्वरः।।
भावार्थ: इन दोनों से भिन्न एक उत्तम पुरुष है, जिसे परमात्मा कहा जाता है। वह तीनों लोकों में प्रवेश कर उनका पालन-पोषण करता है और अविनाशी है।
Tatvadarshi Sant Ki Pehchaan: कबीर साहेब ने इस श्लोक को सरल शब्दों में समझाया है:
कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन (ब्रह्म) वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
कबीर, हम ही अलख अल्लाह हैं, मूल रूप करतार।
अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का, मैं ही सिरजनहार।।
भावार्थ: संसार रूपी उल्टा वृक्ष है, जिसकी जड़ें परम अक्षर पुरुष (सतपुरुष) हैं, अक्षर पुरुष तना है, ब्रह्म (ज्योति निरंजन) डाल है, और तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) शाखाएँ हैं। छोटी टहनियाँ और पत्ते अन्य देवी-देवता और जीव हैं।
दूसरी पहचान: गीता अध्याय 8, श्लोक 16 में कहा गया है कि ब्रह्मलोक सहित सभी लोक पुनरावृत्ति में हैं, अर्थात् नाशवान हैं। श्लोक 17 में बताया गया है कि परब्रह्म का एक दिन और रात्रि एक हजार युग की होती है। जो इस काल को तत्व से जानता है, वही तत्वदर्शी संत है।
गीता का ज्ञानदाता और पूर्ण परमात्मा
गीता के अध्याय 15, श्लोक 4 में कहा गया है:
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन् गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।
भावार्थ: तत्वदर्शी संत के मार्गदर्शन में उस परम पद (सतलोक) की खोज करनी चाहिए, जहाँ पहुँचकर साधक को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। गीता का ज्ञानदाता (काल ब्रह्म) स्वयं कहता है कि वह भी उसी आदि पुरुष, पूर्ण परमात्मा की शरण में है। अतः उसी परमात्मा की भक्ति पूर्ण निश्चय के साथ करनी चाहिए।
Tatvadarshi Sant Ki Pehchaan: यह बात गीता के अध्याय 18, श्लोक 46, 61-66 में भी पुष्ट होती है, जहाँ गीता का बोलने वाला अपने से भिन्न पूर्ण परमात्मा की शरण लेने की सलाह देता है और उसे ही अपना इष्ट बताता है।
कबीर साहेब ने इस सत्य को सरलता से व्यक्त किया है:
कबीर, एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय।
माली सीचैं मूल को, फूलै-फलै अघाय।।
निष्कर्ष
तत्वदर्शी संत की पहचान (Tatvadarshi Sant Ki Pehchaan) गीता के श्लोकों में स्पष्ट है। वे वही हैं जो संसार के इस उल्टे वृक्ष का पूर्ण ज्ञान रखते हैं, काल और परमात्मा को तत्व से समझते हैं, और साधकों को जन्म-मरण से मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। संत रामपाल जी महाराज ने गीता के इस ज्ञान को सरलता से समझाकर तत्वदर्शी संत की सही पहचान बताई है। अधिक जानकारी के लिए Factful Debates यूट्यूब चैनल देखें।