Aniruddhacharya-Vs-Sant-Rampal-Ji:Factful Debates
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Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji | श्रीकृष्ण या कबीर जी, किस प्रभु की भक्ति से हो सकते हैं पाप नाश?

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : हिन्दू धर्म में गुरुओं (संतों), कथावाचकों की कमी नहीं है। प्रत्येक संत और कथावाचक सत्य आध्यात्मिक ज्ञान बताने का दावा करता है। साथ ही, उनके द्वारा यह भी कहा जाता है कि हमारे द्वारा बताई गई भक्ति से मानव के सर्व पाप भी समाप्त हो जाते हैं और अंत में उन्हें मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। 

उन्हीं कथावाचकों में से एक हैं अनिरुद्धाचार्य जी। जिनके आज बड़ी संख्या में श्रोता व अनुयायी हैं। जिनका कहना है कि कर्म फल तो भगवानों को भी भोगना पड़ा है, इसलिए यह समाप्त नहीं हो सकता। जबकि दूसरी ओर संत रामपाल जी महाराज, जिनके पूरी दुनिया में करोड़ों अनुयायी हैं। उनका कहना है कि परमात्मा की भक्ति से भक्त के सर्व पाप समाप्त हो जाते हैं। 

जिससे मानव समाज के सामने असमंजस की स्थिति बनी हुई है कि आखिर वह किसकी बात को सत्य माने। तो सभी पाठक जन इस लेख को पूरा अवश्य पढ़िएगा। जिसमें आपको वेदों के प्रमाणों से रूबरू कराया जाएगा। जिससे अनिरुद्धाचार्य बनाम संत रामपाल जी महाराज (Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji) आध्यात्मिक ज्ञानचर्चा से यह निर्णय करने में आपको आसानी हो जाएगी कि किस संत या कथावाचक द्वारा सही ज्ञान और भक्ति बताई जा रही है।

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : कर्म कितने प्रकार के होते हैं?

सबसे पहले यह जान लेते हैं कि कर्म क्या है? पाप और पुण्य क्या हैं? पाठकों जो भी हम कार्य करते हैं उसे कर्म कहा जाता है जोकि दो प्रकार के होते हैं। एक शुभ (पुण्य) कर्म और दूसरा अशुभ (पाप) कर्म।

  • पुण्य कर्म :- शास्त्रविधि अनुसार भक्ति कर्म, दान, परमार्थ, भूखों को भोजन देना, दया भाव रखना, सत्य बोलना, अहिंसा में विश्वास रखना, असहाय की हर संभव सहायता, अपने से दुर्बल से भी मित्र जैसा व्यवहार करना, परनारी को माता तथा बहन के भाव से देखना, साधु-संतों, भक्तों की सेवा व सम्मान करना, माता-पिता तथा वृद्धों की सेवा करना आदि पुण्य कर्म हैं।
  • पाप कर्म :- शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करके भक्ति कर्म करना, चोरी, परस्त्री को दोष दृष्टि से देखना, माँस-मदिरा, नशीली वस्तुओं का सेवन, रिश्वत लेना, हिंसा करना आदि पाप कर्म हैं।

कैसे बनता है कर्म बंधन?

धर्म शास्त्रों से पता चलता है कि काल ब्रह्म ने जीव के कर्मों को तीन प्रकार से बाँटा है।

  1. संचित कर्म : संचित कर्म, वे शुभ और अशुभ कर्म हैं जो जीव ने जन्म-जन्मातरों में किए थे। उनका भोग अभी उसे प्राप्त नहीं हुआ है। वे संचित (एकत्र) हैं।
  2. प्रारब्ध कर्म : हर कोई विचार करता है कि आखिर कर्म से प्रारब्ध कैसे बनता है? तो आपको बता दें, प्रारब्ध का शाब्दिक अर्थ होता है :- भाग्य, किस्मत। प्रारब्ध कर्म, जो जीव को जीवन काल में भोगने होते हैं जोकि संचित कर्मों से औसत करके बनाए जाते हैं। जैसे कि यदि पाप कर्म एक हजार हैं और पुण्य कर्म पाँच सौ हैं तो दोनों से औसत में लिए जाते हैं। प्रारब्ध कर्म यानि जीव का भाग संचित कर्मों से औसत में लेकर बनाया जाता है। यदि 20-20 प्रतिशत लेकर प्रारब्ध बना तो पाप कर्म पचास और पुण्य कर्म पच्चीस बने। इस प्रकार प्रारब्ध कर्म यानि जीव का भाग्य बनता है। इनको प्रारब्ध कर्म कहते हैं।
  3. क्रियावान कर्म : अपने जीवन काल में जो कर्म प्राणी करता है, वे क्रियावान कर्म होते हैं। इनमें 75% तो प्रारब्ध कर्म होते हैं जो संस्कार (भाग्य) में लिखे होते हैं, वे किए जाते हैं जिनके करने के लिए जीव बाध्य होता है। जबकि 25% कर्म करने के लिए जीव स्वतंत्र होता है। 

चलिए अब हम Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji के मध्य हुई आध्यात्मिक ज्ञानचर्चा के विषय में जानते हैं कि कर्म फल के विषय में अनिरुद्धाचार्य जी और संत रामपाल जी महाराज क्या बताते हैं?

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : कर्म फल पर विचार

कर्म फल के विषय में अनिरुद्धाचार्य जी कहते हैं कि कर्म फल तो भोगना ही पड़ता है क्योंकि भगवानों को भी कर्म फल भोगना पड़ा। जैसे श्री विष्णु जी को नारद जी ने श्राप दिया था; जिसके कारण विष्णु जी ही त्रेतायुग में श्रीराम रूप में जन्मे और जीवन भर दु:खी रहे। 

जबकि संत रामपाल जी महाराज जी का कहना है कि हम सभी भगवान की भक्ति तो इसलिए करते हैं; जिससे हमारे जीवन में प्रारब्ध कर्मों के कारण आने वाले दुःख समाप्त हो जाएं। यदि कर्म के फल को भोगना ही है तो फिर भक्ति और भगवान की आवश्यकता ही नहीं है। जबकि पवित्र सद्ग्रंथों में बताया गया कि भक्ति करने से साधक के घोर पाप भी परमात्मा समाप्त कर देता है। 

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji के अनुसार क्या श्रीकृष्ण की भक्ति से मोक्ष संभव है?

अनिरुद्धाचार्य जी एक ओर कहते हैं कि कर्म फल भगवानों को भी भोगना पड़ा, इसलिए प्रारब्ध में लिखे पाप कर्मों के कारण जीवन में आने वाले दु:खों को तो हमें भोगना ही पड़ेगा। फिर दूसरी ओर कहते हैं भगवान की भक्ति से मोक्ष मिल जाता है। जिसके बाद कर्म फल नहीं भोगना पड़ता। वहीं अनिरुद्धाचार्य जी श्रीकृष्ण उर्फ श्री विष्णु (श्रीमन नारायण) को अपना भगवान मानते हैं। 

जबकि संत रामपाल जी महाराज जी बताते हैं कि सर्वप्रथम तो यह विचार करने की जरूरत है कि श्रीमन नारायण (श्री विष्णु) जी को नारद जी ने श्राप दिया। जिसके कारण श्रीमन नारायण का त्रेतायुग में श्रीराम रूप में जन्म हुआ। फिर उन्हें 14 वर्ष का वनवास हुआ। जहां से राक्षस रावण ने सीता जी का अपहरण किया। फिर उन्हें छुड़वाने के लिए भयंकर युद्ध हुआ और लंका से माता सीता को लाने के बाद श्रीराम ने उन्हें एक धोबी के व्यंग्य के कारण घर से निकाल दिया। फिर जब श्रीराम अपने पुत्रों लवकुश से युद्ध में परास्त हो गए तो उन्होंने अंत में सरयू नदी में जल समाधि लेकर अपने प्राण त्यागे थे। 

वहीं त्रेतायुग में श्रीराम ने सुग्रीव के भाई बाली को वृक्ष की ओट लेकर मारा था जिसका बदला उन्हें द्वापरयुग में देना पड़ा। श्रीराम ही द्वापरयुग में श्रीकृष्ण रूप में जन्मे और बाली वाली आत्मा बालिया नामक शिकारी के रूप में जन्म लिया। जिसने श्रीकृष्ण के पैर के पंजे में विषाक्त (जहर से बुझे) तीर को मारा था, जिससे श्रीकृष्ण की मौत हुई थी। जिससे श्रीकृष्ण जी भी अपनी रक्षा नहीं कर सके। पढ़ें दुर्वासा ऋषि का श्राप और श्रीकृष्ण का दु:खमय अंत। 

ऋषि दुर्वासा का श्राप

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : एक समय दुर्वासा ऋषि द्वारिका नगरी के पास बने वन में आकर धूना अग्नि लगाकर तपस्या करने लगे। जोकि श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरू थे; जबकि संदीपनी ऋषि श्रीकृष्ण के अक्षर ज्ञान करवाने वाले गुरू थे। ऋषि दुर्वासा की प्रसिद्धि इतनी थी कि ये तीनों कालों अर्थात भूत, भविष्य तथा वर्तमान की सब जानते हैं। 

वहीं द्वारिकावासी श्रीकृष्ण से अधिक शक्तिशाली किसी भी ऋषि व देव को नहीं मानते थे। जिसके कारण द्वारिका के नौजवानों को शरारत सूझी कि चलो दुर्वासा ऋषि की परीक्षा लेते हैं। श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्यूमन ने गर्भवती स्त्री का स्वांग धारण किया। जिसके पेट के ऊपर छोटा कड़ाहा, रूई-लोगड़ (पुरानी रूई) रखकर वस्त्र बाँधकर स्त्री के कपड़े पहना दिए और उसका एक पति बना लिया। 

सात-आठ नौजवान यादव उनके साथ दुर्वासा के डेरे में गए और प्रणाम करके निवेदन किया कि ऋषि जी इनके विवाह के 12 वर्ष बाद परमात्मा ने संतान की आशा पूरी की है। ये यह जानना चाहते हैं कि गर्भ में लड़का है या लड़की। कृपया बताने की कृपा करें। दुर्वासा जी ने ध्यान लगाकर देखा तो सच्चाई जान क्रोध में आकर बोले कि इस गर्भ से यादव कुल का नाश होगा।

श्रीकृष्ण के बताए समाधान से यादव नहीं हुए श्राप मुक्त 

जिसके बाद द्वारिका में बुद्धिमान बुजुर्गों को पता चला कि बच्चों के मजाक के कारण दुर्वासा ने यादव कुल का नाश होने का श्राप दे दिया है। सभी मरेंगे। अब क्या उपाय किया जाए? सब मिलकर अपने गुरू तथा राजा श्रीकृष्ण जी के पास गए तथा पूरी बात बताई। तब श्रीकृष्ण जी ने उपाय बताया कि उन सब बच्चों को साथ लेकर ऋषि दुर्वासा के पास जाओ। उनसे क्षमा माँगो। तब सभी मिलकर ऋषि दुर्वासा के पास गए तथा बच्चों सहित सभी ने गलती की क्षमा याचना की। तो ऋषि दुर्वासा बोले कि वचन वापिस नहीं हो सकता। 

श्राप मुक्ति के दूसरे उपाय से भी यादवों को नहीं मिली श्राप से मुक्ति

दुर्वासा जी के मना करने के बाद सभी श्रीकृष्ण के पास वापिस आए तथा दुर्वासा के श्राप से बचने का उपाय पूछा तो श्रीकृष्ण ने कहा कि जो-जो वस्तु गर्भ का रूप बनाने में प्रयोग की थी। उन्हें नष्ट कर दो। कपड़े-रूई-लोगड़ को जलाकर उसकी राख तथा लोहे की कड़ाही को पत्थर पर घिसा-घिसाकर चूर्ण बनाकर प्रभास क्षेत्र में जमुना नदी में डाल दो। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : द्वारिकावासियों ने श्रीकृष्ण के आदेश का पालन करते हुए लोहे की कड़ाही का एक कड़ा एक व्यक्ति को घिसने के लिए दिया। उसने कुछ घिसाया और वैसे ही जमुना (यमुना) नदी में फैंक दिया। घिसने के कारण कड़े में चमक आ गई थी। जिसे एक मछली ने खा लिया। उस मछली को एक बालिया नाम के भील ने पकड़कर काटा तो कड़ा निकला। बालिया ने उससे अपने तीर का आगे वाला हिस्सा विषाक्त बनवा लिया। 

वहीं कपड़ों, रूई-लोगड़ की राख और कड़ाहे का जो लोहे का चूर्ण जमुना नदी में डाला था, उससे तेज-तीखे पत्तों वाला घास उग गया। जिसके पत्ते तलवार की तरह पैने धारदार थे। कुछ वर्षों के बाद दुर्वासा के श्राप के कारण द्वारिका में अनहोनी घटनाएँ होने लगी। एक-दूसरे को छोटी-सी बात पर मारने लगे। पूरी द्वारिका में झगड़े होने लगे। 

56 करोड़ यादवों का श्रीकृष्ण की आँखों के सामने हुआ विनाश

इसके बाद द्वारिका नगरी (द्वारका) के बड़े-बुजुर्ग मिलकर श्रीकृष्ण जी के पास गए तथा सब हाल सुनाया। तो श्रीकृष्ण ने बताया कि ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण यह हो रहा है। इसीलिए नवजात शिशु सहित शहर के सभी पुरुष यादवों के लिए समाधान है कि वे प्रभास क्षेत्र में उसी स्थान पर यमुना नदी में स्नान करें, जहां कड़ाही का चूर्ण डाला गया था।

श्राप से बचने के लिए द्वारका के सभी नर यादव नवजात शिशु, युवा और वृद्ध स्नान करने के लिए प्रभास क्षेत्र में गए। जहां यमुना नदी में स्नान करने के बाद, वे बाहर निकले और एक-दूसरे से गाली-गलौच करने लगे तथा उस कड़ाही के चूर्ण से उत्पन्न घास को उखाड़कर एक-दूसरे को मारने लगे। जिसके कारण उनमें से अधिकांश की मौत हो गई। जिसमें कुछ बचे यादवों को श्रीकृष्ण ने उस घास से मार डाला।  

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श्रीकृष्ण की मृत्यु कैसे हुई?

फिर अकेले बचे श्रीकृष्ण एक पैर को दूसरे पैर पर रखकर एक पेड़ के नीचे लेट गए। उनके दाहिने पैर के तलवे (पँजे) पर जन्म से ही पदम था, जो चमक रहा था। उस दौरान बलिया नामक भील शिकारी, मछली से निकले कड़ाही के कड़े का विषाक्त तीर बनवाकर उस तीर को लेकर उस स्थान पर शिकार की तलाश में आया; जिस वृक्ष के नीचे श्रीकृष्ण जी लेटे थे। 

वृक्ष की छोटी-छोटी टहनियाँ चारों ओर नीचे लटक रहीं थी। जिससे उसने श्रीकृष्ण के पैर पर चमकते पदम को मृग (हिरण) की आँख जानकर दूर से ही निशाना लगा दिया। जिससे श्रीकृष्ण दर्द से चिल्लाने लगे। बालिया को अपनी गलती का एहसास हुआ और निकट जाकर देखा तो द्वारकाधीश श्रीकृष्ण विषाक्त तीर लगने से तड़फ रहे थे। तब बालिया अपनी गलती की क्षमा याचना करने लगा और कहा कि भगवान! धोखे से तीर लग गया। मैंने आपके पैर के पदम की चमक को हिरण की आँख जानकर दूर से ही बिना सोचे समझे तीर चला दिया। मुझे क्षमा करो। 

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : तब श्रीकृष्ण ने कहा कि बालिया तेरा कोई दोष नहीं है। त्रेतायुग में तू किसकिंधा के राजा सुग्रीव का भाई बाली था। मैं अयोध्या में रामचन्द्र नाम से राजा दशरथ के घर जन्म लिया था। उस समय मैंने तेरे को वृक्ष की ओट लेकर धोखा करके लड़ाई में मारा था। तब तुमने कहा था कि आपने युद्ध का नियम तोड़ा है, जिसका बदला आपको देना होगा। आज मैंने तेरा बदला चुकाया है। इस तरह श्रीकृष्ण की पीड़ा दायक मौत हुई थी। इस पूरी घटना का प्रमाण श्री विष्णु पुराण के पांचवें अंश अध्याय 37 पृष्ठ 413 पर है। 

अब स्वयं विचार करें, जो भगवान अपने तीन ताप के अंतर्गत आने वाले श्राप यानि कर्म फल को नहीं काट सकते तो उनकी भक्ति करने वाले भक्त के कैसे कर्म के फल कट सकते हैं तथा जिन भगवानों का स्वयं मोक्ष नहीं हुआ, जो स्वयं जन्म-मृत्यु में हैं तो उनकी भक्ति से साधक को मोक्ष कैसे मिल सकता है। 

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : श्रीमन नारायण (श्री विष्णु जी) का होता है जन्म-मृत्यु

अनिरुद्धाचार्य जी, जिन श्रीमन नारायण उर्फ श्री विष्णु जी (श्रीकृष्ण, श्रीराम) की भक्ति से मोक्ष बताते हैं। उन्होंने गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत के तीसरे स्कन्ध अध्याय 4-5 पृष्ठ नं. 123 पर श्री दुर्गा जी की स्तुति करते हुए कहा है कि “हे मात:! मैं (विष्णु, श्रीमन नारायण), ब्रह्मा और शंकर हम सभी तुम्हारी कृपा से ही विद्यमान हैं। हमारा तो जन्म और मृत्यु हुआ करता है अर्थात् हम अविनाशी नहीं हैं। आप ही जगत जननी और प्रकृति देवी हो। 

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : जिससे यह भी स्पष्ट होता है कि श्रीमन नारायण अर्थात विष्णु जी नाशवान हैं। जबकि गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में कहा गया है कि अविनाशी तो उसको जान जिसे मारने में कोई समर्थ नहीं है। साथ ही, गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा गया है कि तत्वदर्शी संत के मिलने के पश्चात् उस परमेश्वर के परम पद अर्थात् सतलोक को भलीभाँति खोजना चाहिए। जहां गये हुए साधक लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परम अक्षर ब्रह्म से सृष्टि उत्पन्न हुई है, उस सनातन पूर्ण परमात्मा की ही मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए।

फिर गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा कि तू उस परमेश्वर की शरण में जा (जिसके विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में कहा है कि वह परम अक्षर ब्रह्म है) उसकी कृपा से ही तू परम शांति और सनातन परम धाम यानि अविनाशी स्थान सतलोक को प्राप्त होगा। जहां जन्म मृत्यु, वृद्धावस्था आदि कोई कष्ट नहीं है। 

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji के अनुसार पाप नाशक परमात्मा कौन है?

हमारे पवित्र चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद) सबसे पुरातन सद्ग्रंथ हैं। इन्हीं वेदों में लिखा है: 

  • कविरंधारिरसि अर्थात् कविर्देव (कबीर परमेश्वर) पाप का दुश्मन अर्थात् पाप विनाशक है, वही बम्भारिरसि अर्थात् बन्धनों का शत्रु है अर्थात् कर्म बन्धन से छुड़वाने वाला बंदीछोड़ है। ‘स्वर्ज्योति ऋतधामा असि’ यह कविर्देव स्वयं प्रकाशित मानव आकार में सतलोक में रहता है। – यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 
  • हे पूर्ण परमात्मा (पूर्ण ब्रह्म) आप सतभक्ति करने वाले साधकों के पापविनाश कर देते हो। सतभक्ति चाहे अच्छी आत्माऐं करें, चाहे साधारण व्यक्ति, चाहे पिता करे, चाहे कोई स्वयं करे, चाहे विद्वान् हो, चाहे अविद्वान् हो, यदि वे सतभक्ति के तीन मंत्र (सांकेतिक ओम्+ तत्+ सत् जिनका संकेत गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में है) का जाप तत्त्वदर्शी संत से लेकर करें तो सबके घोर पाप भी क्षमा (विनाश) कर देते हो। पवित्र यजुर्वेद अध्याय 8 मंत्र 13
  • सब पापों का नाश करने वाले ईश्वर आप हैं। – यजुर्वेद अध्याय 4 मंत्र 15 
  • यज्ञ करने वाले अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करने वाले भक्तों के लिए कबीर परमात्मा (कविर्देव), उनके जीवन रूपी सफर के मार्ग को दु:खों रहित करके सुगम बनाता है। उनके विघ्नों अर्थात् संकटों को समाप्त करता है। भक्तों को पवित्र अर्थात् पाप रहित, विकार रहित करता है। – ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मंत्र 26-27 
  • सर्व की उत्पत्ति करने वाला कविर्देव (कबीर परमेश्वर) तेजोमय शरीर युक्त है, पापों को नाश करने वाला और सुखों की वर्षा करने वाला है। वह ऊपर सतलोक में सिंहासन पर बैठा है जो देखने में राजा के समान है। – ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मंत्र 1-2 
  • सर्व सृष्टि को रचने वाला अपने उपासक के पाप कर्मों को नष्ट करके पवित्र करने वाला स्वयं अविनाशी परमात्मा कविर्देव (कबीर साहेब) ही है। – संख्या नं. 920 सामवेद के उतार्चिक अध्याय 5 के खण्ड 4 का श्लोक 2

वेदों के उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ही पाप नाशक, मोक्ष दायक परमात्मा है। इसलिए हमें कबीर प्रभु की ही भक्ति करनी चाहिए।

संत गरीबदास जी की अमृतवाणी में कबीर साहेब जी हैं पाप नाशक परमात्मा

संत गरीबदास जी को कबीर परमेश्वर जिंदा बाबा के रूप में सतलोक से आकर सन् 1727, विक्रम संवत 1784 फाल्गुन मास की द्वादशी को मिले थे। उन्हें सत्यज्ञान देकर सतलोक दिखाकर वापिस छोड़ा था। जिसके बाद संत गरीबदास जी ने कबीर परमेश्वर की समर्थता का आँखों देखा वर्णन करते हुए बताया है कि

गरीब, तुम कौन राम का जपते जापं। ताते कटें ना तीनों तापं।।

अर्थात् तुम किस प्रभु का जाप करते हो, किस प्रभु की भक्ति करते हो; जिससे तुम्हारे तीन ताप भी समाप्त नहीं होते।

गरीब, सतगुरू जो चाहें सो करही, चौदह कोटि दूत जम डर ही।
ऊत भूत जम त्रास निवारें, चित्र-गुप्त के कागज फाड़े।।

गरीब, जम जौरा जासे डरें, मिटे कर्म के लेख। 

सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सतगुरू एक।।
गरीब, सब पदवी के मूल है, सकल सिद्धि हैं तीर। 

दास गरीब सतपुरूष भजो, अविगत कला कबीर।।

अर्थात् सतगुरू कबीर जी पूर्ण परमात्मा हैं। वे तीन ताप तो क्या सर्व पापों का नाश कर देते हैं। जो चाहे सो कर सकते हैं। पाप कर्मों के लेख मिटा देते हैं। उनसे चौदह करोड़ जो यमदूत हैं, वे भी भय मानते हैं। जम यानि यमराज, जौरा यानि मृत्यु जिससे डरते हैं, वे सतगुरू कबीर जी हैं। कुल के अर्थात सबके एकमात्र सतगुरू हैं। सतपुरूष, अविनाशी समर्थ परमात्मा हैं। सब पदवियों के योग्य वही हैं। जैसे परमात्मा पदवी, बन्दीछोड़ की पदवी, कवि की पदवी, सृजनहार की पदवी, पालनहार की पदवी आदि-आदि सब पदवी के मूल हैं। सब सिद्धियाँ उन्हीं के पास हैं। उस सतपुरूष के (कला) अवतार कबीर जी हैं।

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji के मुताबिक पापों का नाश कैसे होता है?

संत रामपाल जी महाराज जी बताते हैं कि कर्म फल अर्थात पापों कर्मों का नाश पूर्ण परमात्मा, परम अक्षर ब्रह्म कबीर परमेश्वर की सतभक्ति करने से होता है। जिसके लिए सर्वप्रथम श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 34 व अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्त्वदर्शी संत की खोज करनी चाहिए। फिर उससे नाम उपदेश लेकर उसके बताए अनुसार एक पूर्ण परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। जिससे साधक के सर्व पाप कर्म समाप्त हो जाते हैं। इस संदर्भ में कबीर साहेब जी ने कहा है: 

कबीर, जब ही सत्यनाम हृदय धर्यो, भयो पाप को नाश। 

मानो चिंगारी अग्नि की, पड़ी पुराने घास।। 

भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि जिस समय साधक को सतनाम (सत्यनाम) अर्थात् वास्तविक नाम मंत्र मिल जाता है और साधक हृदय से सतनाम का स्मरण करता है तो उसके पाप ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे हजारों टन सूखा पुराने घास में अग्नि की एक छोटी-सी चिंगारी लगा देने से वह जलकर भस्म हो जाता है। उसी प्रकार सतनाम के स्मरण से साधक का पाप नाश हो जाता है जो दु:खों का मूल है। पाप नाश हुआ तो साधक सुखी हो जाता है।

Aniruddhacharya Vs Sant Rampal Ji : क्या है तत्त्वदर्शी संत की पहचान?

पवित्र श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में कहा गया है कि 

ऊर्ध्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्,

छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित्।।1।।

– गीता अध्याय 15 श्लोक 1

अर्थात आदि पुरूष परमेश्वर जिसकी मूल है, उस ऊपर को मूल वाले, नीचे को शाखा वाले; जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं। उसके सब भागों को जो तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला तत्त्वदर्शी संत अर्थात पूर्णसंत (सतगुरु) है।

वहीं परमेश्वर कबीर जी ने “कबीर सागर” के अध्याय “जीव धर्म बोध” के पृष्ठ 1960 पर पूर्णगुरु (पूर्णसंत) के लक्षण बताऐ हैं कि

गुरू के लक्षण चार बखाना। प्रथम वेद शास्त्र का ज्ञाना (ज्ञाता)।। 

दूसरा हरि भक्ति मन कर्म बानी। तीसरा सम दृष्टि कर जानी।।

चौथा बेद विधि सब कर्मा। यह चारि गुरू गुन जानों मर्मा।।

भावार्थ: जो गुरू अर्थात् परमात्मा कबीर जी का कृपा पात्र दास गुरू पद को प्राप्त होगा, उसमें चार गुण मुख्य होंगे।

  1. वह संत वेदों तथा शास्त्रों का ज्ञाता होगा। वह सर्व धर्मों के शास्त्रों को ठीक-ठीक जानेगा।
  2. वह केवल ज्ञान-ज्ञान ही नहीं सुनाऐगा, वह स्वयं भी परमात्मा की भक्ति मन कर्म वचन से करेगा।
  3. वह सर्व अनुयायियों के साथ समान व्यवहार करेगा, वह समदृष्टि वाला होगा। 
  4. चौथा, वह सन्त वेदों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना अर्थात् प्रार्थना (स्तुति) यज्ञ अनुष्ठान तथा मंत्र बताएगा। 

वहीं पाप नाशक परमेश्वर कबीर जी की सतभक्ति और पूर्णसंत की विस्तृत जानकारी जानने के लिए प्रतिदिन Sant Rampal Ji Maharaj यूट्यूब चैनल पर सत्संग देखिए।

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